प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 9
प्राचीन भारत के प्रमुख राज्य कर
(Major State Taxes of Ancient India)
प्रश्न- प्राचीन भारत में कर के स्रोतों का विवरण दीजिए।
उत्तर-
राज्य आय के मुख्य स्रोत निम्नलिखित थे-
(1) कर और शुल्क
(2) मुख्य अवसरों पर कर
(3) राज्य सम्पत्ति से आय (शुक्र का आय-कर)
(4) सामन्तों द्वारा दिये गये उपहार,
(5) दण्ड।
हम यहां प्राचीन भारत के कर की विशेषताओं का अध्ययन करेंगे।
(1) कर एवं शुल्क - भूमिकर राज्य आय का मुख्य साधन था। अभिलेखों में इसे 'भागकर ' और 'उद्रंग' कहा गया है। स्मृतियों में कर की एक दर नहीं बतायी गयी है। आठ से लेकर तैंतीस प्रतिशत तक इनमें बताया गया है। डा. अल्तेकर के अनुसार दरों में अन्तर भूमि के किस्म के कारण था। कुलोतुंग चोल ने कर के उद्देश्य से भूमि को आठ वर्गों में विभक्त किया था। स्मृतिकारों में एक मत न होने के कारण सम्भवतः यह भी था कि विभिन्न राज्यों में विभिन्न दरें सम्भवतः होंगी अथवा एक ही सरकार द्वारा विभिन्न समय में विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विभिन्न दरें निर्धारित की जाती होंगी। अर्थशास्त्र और मेगस्थनीज अनुसार मौर्य राज्य में कृषि उत्पादन पर 25% कर वसूल किया जाता था अशोक ने लुम्बनी गांव के लोगों को कर में छूट दी थी।
भूमि कर राजा अपने अधिकारियों द्वारा वसूल करवाता था। भूमि कर नकद और वस्तु दोनों रूपों में संग्रह किया जाता था। जातकों द्वारा गत होता है कि जब फसल तैयार होती थी तो फसल कटने के समय राज्य कर्मचारी खेतों पर जाकर कर वस्तु रूप में संग्रह करते थे।
( 2 ) चुंगी - व्यापारियों द्वारा आपात की गयी वस्तुओं पर चुंगी ली जाती थी। इसमें राज्य का औचित्य था क्योंकि सड़कों और यातायात मार्गों को राज्य द्वारा सुरक्षित रखने में व्यय करना पड़ता था। चुंगी नगर अथवा गांव के प्रवेश द्वार पर स्थित शल्कगृह सौल्लिक अधिकारी द्वारा ली जाती थी। स्थानीय रीति रिवाजों के अनुसार चुंगी नकद अथवा वस्तु रूप में अदा करनी पड़ती थी। स्मृतियों द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार अदायगी वस्तु के रूप में होती थी। अभिलेखों द्वारा ज्ञात होता है कि विभिन्न स्थानों पर घी, तेल, पान आदि की निश्चित मात्रा चुंगी में देनी पड़ती थी। प्राचीन भारतीय चिन्तकों द्वारा चुंगी की निम्नलिखित दरें निर्धारित की गयी हैं।
अधिकतर स्मृतियों में वर्णित पदार्थों पर लगाये गए कर अभिलेखों में देखने को मिलते हैं। कौटिल्य ने ऐसे पदार्थों को शुल्क मुक्त बताया है जो धार्मिक यज्ञों और विवाह-संस्कारों के लिए आयात हुए हों।
इसके अतिरिक्त दुकानों पर कर (Shop tax) लगाये जाते थे। बढ़ई, धातु कलाकार आदि राज्य . के लिए महीने में एक या दो दिन कार्य करते थे।
(3) एक्साइज ड्यूटी - मंदिरा का व्यापार राज्य नियंत्रण में था। इसका उत्पादन आंशिक राजकीय डिस्टिलरी में और आंशिक व्यक्तिगत रूप में होता था। अर्थशास्त्र के अनुसार व्यक्तिगत रूप में तैयार की गयी मदिरा पर 5% एक्साइज ड्यूटी पड़ती थी।
खानों से प्राप्त द्रवों पर भी एक्साइज ड्यूटी लगायी जाती थी। शुक्र के अनुसार स्वर्ण और रत्नों पर 50%, चांदी और तांबे पर 33 1/3% और अन्य धातुओं पर 16 से 25% आयकर लिया जाता था।
लवण पर भी एक्साइज ड्यूटी लगती थी। ताम्र-दान पात्रों से ज्ञात होता है कि दान से प्राप्त ग्रामों को यह अधिकार दिया जाता था कि वे बिना शुल्क दिये लवण और धातुएं खोद सकते थे।
पशुपालन पर भी कर लिया जाता था।
(4) विष्टि - निर्धन व्यक्ति न तो नकद और न ही वस्तु रूप में कर दे पाता। परन्तु वह राज्य द्वारा सुरक्षा पाता था। अतः उससे राजा परिश्रम में कर लेता था, अर्थात राज्य की वह व्यक्ति बिना मजदूरी लिए, एक या दो दिन महीने में अपने शारीरिक परिश्रम द्वारा सेवा करता था।
(5) अतिरिक्त कर - राज्य के पास यह शक्ति थी कि अज्ञात आपत्ति का मुकाबला करने के लिए अथवा बड़ी योजनाओं को सफल बनाने के लिए अतिरिक्त कर लगा सकता था। महाभारत में बताया गया है कि राजा अपने विशेष दूत भेजकर प्रजा को परिस्थिति से अवगत कराये और उसका हृदय जीते। अर्थशास्त्र में अतिरिक्त कर को 'प्रणय' बताया गया है। कृषक से 25% और व्यापारी से 5% से 50% तक कर वसूल किया जाता था।
इस प्रकार उपर्युक्त विशेषतायें प्राचीन भारतीय कर - व्यवस्था की दिखाई देती हैं। स्मृतियों में बतलाये गये सामान्य सिद्धान्तों का जैसा कि हम बता चुके हैं, क्या अनुसरण होता था? हमारे पास कुछ ऐतिहासिक प्रमाण है जो प्रदर्शित करते हैं कि प्राचीन भारतीय राजा कर वसूलवायी में निरंकुशता बरतते थे। एक जातक में एक गांव के लोगों की बड़ी दयनीय दशा को बताया गया है। इसके अनुसार उस गांव के रहने वाले अधिकारी के भय से भाग कर जंगल में छिप गये थे। काश्मीर के राजा ललितादित्य अपने उत्तराधिकारियों को यह सलाह दी की वे प्रजा से इतना कर वसूल करें कि उनके पास केवल वर्ष भर के लिए खाने को शेष रहे। इसी वंश के राजा शंकरवर्मा ने प्रजा से इतना कर वसूला कि प्रजा के पास जीवन निर्वाह के लिए केवल हवा शेष रह गई। कुलोत्तुंग तृतीय के सामन्त ने अवैध कर वसूल किया था और इसके न दे सकने पर लोगों की जमीनें क्रय कर ली गयी थी। क्या इन कुछ उदाहरणों पर धारणा बनाई जा सकती है कि प्राचीन भारत में सभी राजा अवैध कर लेकर निरंकुशता का बोलबाला स्थापित करते थे? ऐसी धारणा हम नहीं बना सकते हैं। उदाहरण केवल अपवाद मात्र हैं। दक्षिणी भारत के अभिलेखों से दूसरी ओर ज्ञात होता है कि प्रजा गांव सभा अथवा पंचायत के माध्यम से केन्द्र की निरंकुशता से अपने हितों और अधिकारों की सुरक्षा करती थी। तंजौर जिले के नाडुओं की कुछ सभाओं ने प्रस्ताव पारित किया कि वे केवल वैधानिक कर अदा करेंगे और राज्य की अन्य मांगों को नहीं मानेंगे। यद्यपि वैदिक युग की समितियां अब नहीं रह गयी थी। अतः केन्द्र की निरंकुशता बढ़ने लगी थी। परन्तु फिर भी ग्राम सभाओं की कार्यपालिकायें इतनी शक्तिशाली थी कि अपने वैधानिक हितों और अधिकारों पर केन्द्र के अतिक्रमणों का प्रतिरोध करती थी।
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